06-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

होलीहंस की परिभाषा

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले –

आज ज्ञानसागर बाप 'होलीहँसो' का सगठन देख रहे है । होलीहँस अर्थात् स्वच्छता और विशेषता वाली आत्माएं। स्वच्छता अर्थात् मन-वचन-कर्म, सम्बन्ध सर्व में पवित्रता की निशानी सदा ही सफेद रंग दिखाते है। आप होलीहॅस भी सफेद वस्रधारी, साफ दिल अर्थात् स्वच्छता-स्वरूप हो। तन-मन और दिल से सदा बेदाग अर्थात् स्वच्छ हो। अगर कोई तन से अर्थात् बाहर से कितना भी स्वच्छ हो, साफ हो लेकिन मन से साफ न हो, स्वच्छ न हो तो कहते है कि पहले मन को साफ रखो! साफ मन वा साफ दिल पर साहेब राजी होता है । साथ-साथ साफ दिल वाले की सर्व मुराद अर्थात् कामनायें पूरी होती है । हँस की विशेषता स्वच्छता अर्थात् साफ है, इसलिए आप ब्राह्मण आत्माओं को होलीहॅस' कहा जाता है। चेक करो कि मुझ होलीहँस आत्मा की चारों ही बातों  में अर्थात् तन-मन-दिल और सम्बन्ध में स्वच्छता है? सम्पूर्ण स्वच्छता वा पवित्रता - यही इस संगमयुग में सबका लक्ष्य है । इसलिए ही आप ब्राह्मण सो देवताओं को सम्पूर्ण पवित्र गाया जाता है । सिर्फ निर्विकारी नहीं कहते लेकिन 'सम्पूर्ण निर्विकारी ' कहा जाता है । १६ कल्प सम्पन्न कहा जाता है । सिर्फ १६ कल्प नहीं कहते लेकिन उसमें 'संपन्न' । गायन आपके ही देवता रूप का है लेकिन बने कब? बाह्मण जीवन में वा देवता जीवन में? बनने का समय अब संगमयुग' है । इसलिए चेक करो कि कहाँ तक अर्थात् कितने परसेन्ट में स्वच्छता अर्थात् धारण की है?

 

तन की स्वच्छता अर्थात् सदा इस तन को आत्मा का मंदिर समझ उस स्मृति से स्वच्छ रखना। जितनी मूर्ति श्रेष्ठ होती है उतना ही मंदिर भी श्रेष्ठ होता है । तो आप श्रेष्ठ मूर्तियाँ हो या साधारण हो? ब्राह्मण आत्माएं सारे कल्प में नम्बरवन श्रेष्ठ आत्मायें! ब्राह्मणों के आगे देवतायें भी सोने तुल्य है और ब्राह्मण हीरे तुल्य है! तो आप सभी हीरे की मूर्तियाँ हो। कितनी ऊँची हो गई! इतना अपना स्वमान जान इस शरीर रूपी मंदिर को स्वच्छ रखो। सदा हो लेकिन स्वच्छ हो। इस विधि से तन की पवित्रता सदा रूहानी खुशबू का अनुभव करायेगी। ऐसी स्वच्छता, पवित्रता कहाँ तक धारण हुई? देहभान में स्वच्छता नहीं होती लेकिन आत्मा का मंदिर समझने से स्वच्छ रखते हो। और यह मंदिर भी बाप ने आपको संभालने और चलाने के लिए दिया है । इस मंदिर का ट्रस्टी बनाया है । आपने तो तन-मन-धन सब दे दिया ना! अभी आपका तो नहीं है। मेरा कहेंगे या तेरा कहेंगे? तो ट्रस्टीपन स्वत: ही नष्टोमोहा अर्थात् स्वच्छता और पवित्रता को अपने में लाता है। मोह से स्वच्छता नहीं, लेकिन बाप ने सेवा दी है -ऐसे समझ तन को स्वच्छ, पवित्र रखते हो ना वा जैसे आता है वैसे चलाते रहते हो? स्वच्छता भी रूहानियत की निशानी है।

ऐसे ही मन की स्वच्छता या पवित्रता इसकी भी परसेंटेज देखो। सारे दिन में किसी भी प्रकार का अशुद्ध संकल्प मन मैं चला तो इसको सम्पूर्ण स्वच्छता नहीं कहेंगे । मन के प्रति बापदादा का डायरेक्शन है - मन को मेरे में लगाओ वा विश्व-सेवा में लगाओ। 'मनमनाभव' - इस मंत्र की सदा स्मृति रहे। इसको कहते है- मन की स्वच्छता वा पवित्रता । और किसी तरफ भी मन भटकता है तो भटकना अर्थात् अस्वच्छता। इस विधि से चेक करो कि कितनी परसेन्ट में स्वच्छता धारण हुई? विस्तार तो जानते हो ना!

तीसरी बात- दिल की स्वच्छता। इसको भी जानते हो कि सच्चाई ही सफाई है। अपने स्व-उन्नति अर्थ जो भी पुरुषार्थ है जैसा भी पुरुषार्थ है, वह सच्चाई से बाप के आगे रखना। तो एक - स्वयं के पुरुषार्थ की स्वच्छता। दूसरा- सेवा करते सच्ची दिल से कहाँ तक सेवा कर रहे है, इसकी स्वच्छता। अगर कोई भी स्वार्थ से सेवा करते हो तो उसको सच्ची सेवा नहीं कहेंगे। तो सेवा में भी सच्चाई-सफाई कितनी है ' कोई-कोई सोचते कि सेवा तो करनी ही पड़ेगी। जैसे लौकिक गवर्नमेंट की ड्यूटी है, चाहे सच्ची दिल से करो, चाहे मजबूरी से करो, चाहे अलबेले बनके करो, करनी ही पड़ती है ना। कैसे भी ८ घण्टे पास करने ही है। ऐसे इस आलमाइटी गवर्मेन्ट द्वारा ड्यूटी मिली हुई है- ऐसे समझ के सेवा करना, इसको सच्ची सेवा नहीं कहा जाता। ड्यूटी सिर्फ नहीं है लेकिन ब्राह्मण-आत्माओं का निजी संस्कार ही 'सेवा' है । तो संस्कार स्वतः ही सच्ची सेवा के बिना रहने नहीं देते। तो ऐसे चेक करो कि सच्ची दिल से अर्थात् ब्राह्मण-जीवन के स्वत: संस्कार से कितनी परसेन्ट की सेवा की ' इतने मेले कर लिये, इतने कोर्स करा लिये लेकिन स्वच्छता और पवित्रता की परसेंटेज कितनी रही? ड्यूटी नहीं है लेकिन निजी संस्कार है, स्व-धर्म है. स्व-कर्म है।

चौथी बात - सम्बन्ध में स्वच्छता। इसका सार रूप में विशेष यह चेक करो कि संतुष्टता रूपी स्वच्छता कितने परसेंट में है? सारे दिन में भिन्न-भिन्न वैरायटी आत्माओं से सम्बन्ध होता है। तीन प्रकार के सम्बन्ध में आते हो। एक - ब्राह्मण परिवार के, दूसरा - आये हुये जिज्ञासू आत्माओं के, तीसरा - लौकिक परिवार के। तीनों ही सम्बन्ध में सारे दिन में स्वयं की संतुष्टता और सम्बन्ध में आने वाली दूसरी आत्माओं  की संतुष्टता की परसेंटेज कितनी रही? संतुष्टता की निशानी - स्वयं भी मन से हल्के और खुश रहेंगे और दूसरे भी खुश होंगे। असंतुष्टता की निशानी - स्वयं भी मन से भारी होंगे। अगर सच्चे पुरुषार्थी है तो बार-बार न चाहते भी वे संकल्प आता रहेगा कि ऐसे नहीं बोलते, ऐसे नहीं करते तो अच्छा। यह बोलते थे, यह करते थे - यह आता रहेगा। अलबेले पुरुषार्थी को यह भी नहीं आयेगा। तो यह बोझ खुश रहने नहीं देगा, हल्का रहने नहीं देगा। सम्बन्ध की स्वच्छता अर्थात् संतुष्टता। यही सम्बन्ध की सच्चाई और सफाई है । इसलिए आप कहते हो - 'सच तो बिठो नच' । अर्थात् सच्चा सदा खुशी में नाचता रहेगा। तो सुना, होलीहंस की परिभाषा? अगर सत्यता की स्वच्छता नहीं है तो हंस हो लेकिन होलीहंस नहीं हो। तो चेक करो - सम्पन और सम्पूर्ण का जो गायन है, वह कहाँ तक बने है? अगर ड्रामा अनुसार आज भी इस शरीर का हिसाब समाप्त हो जाए तो कितनी परसेंटेज में पास होंगे? वा ड्रामा को कहो - थोड़ा समय ठहरो! यह तो सोचकर नहीं बैठे हो कि छोटे-छोटे तो जाने वाले है ही नहीं? एवररेडी का अर्थ क्या है? समय का इंतजार तो नहीं करते कि अभी १०-११ वर्ष तो हैं? बहुत करके २००० का हिसाब सोचते है! लेकिन सृष्टि के विनाश की बात अलग है, अपने को एवररेडी रखना अलग बात है । इसलिए यह उससे नहीं मिलाना। भिन्न-भिन्न आत्माओं का भिन्न-भिन्न पार्ट है । इसलिए यह नहीं सोचो कि मेरा एडवांस पार्टी में तो नहीं है या मेरा तो विनाश के बाद भी पार्ट है! कोई आत्माओं का है लेकिन मैं एवररेडी रहूँ । नहीं तो अलबेलेपन का अंश प्रकट हो जायेगा। एवररेडी रहो, फिर चाहे २० वर्ष जिंदा रहो कोई हर्जा नहीं। लेकिन ऐसे आधार पर नहीं रहना। इसको कहते है - होलीहंस' । ज्ञान-सागर के कण्ठे आये हो ना। तो आज होलीहंस की स्वछता सुनाई फिर विशेषता सुनायेंगे।

टीचर्स को चेक करना आता है ना! टीचर्स को विशेष समर्पित होने का भाग्य मिला हुआ है । चाहे प्रवृत्ति वाले भी मन से समर्पित है फिर भी टीचर्स का विशेष भाग्य है। काम ही याद और सेवा' का है। चाहे खाना बनाती या कपड़े धुलाई करती - वह भी यह सेवा है। वह भी अलौकिक जीवन प्रति सेवा करती हो। प्रवृत्ति वालों को दोनों तरफ निभाना पड़ता है। आपको तो एक ही काम है ना, डबल तो नहीं है? जो सच्चाई और सफाई से बाप और सेवा में सदा लगे रहते है, उन्हें कोई और मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सुनाया था कि योग्य टीचर का भण्डारा और भण्डारी सदा भरपूर रहेगा। फिक्र नहीं करना पड़ेगा - अगला मास कैसे चलेगा, मेला कैसे होगा, सेवा के साथ-साथ साधन स्वत: प्राप्त होंगे। रूहानी आकर्षण सेवा और सेवाकेन्द्र स्वत: ही बढ़ाती रहती है। जब ज्यादा सोचते हो कि जिज्ञासु क्यों नहीं बढ़ते, ठहरते क्यों नहीं, चले क्यों जाते... तो जिज्ञासू नहीं ठहरते। योगयुक्त होकर रूहानियत से आह्वान करते हो तो जिज्ञासु स्वत: ही बढ़ते है। ऐसे होता है ना? तो मन सदा हल्का रखो, किसी प्रकार का बोझ नहीं रहे। किसी भी प्रकार का बोझ है चाहे अपना, चाहे सेवा का, चाहे सेवा साथियो का तो उड़ने नहीं देगा - सेवा भी ऊँची नहीं उठेगी। इसलिए सदा दिल साफ और मुराद हासिल करते रहो। प्राप्तियाँ आपके सामने स्वत: ही आयेगी। क्या सुना? सर्व रूहानी प्राप्तियां है ही ब्राह्मणों के लिए तो कहाँ जायेंगी! अधिकार ही आप लोगों का है । अधिकार कोई छीन नहीं सकता। अच्छा 

सर्व होलीहँसो को, चारों ओर के सच्चे साहेब को राज़ी करने वाली सच्ची दिल वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वयं को एवररेडी रखने वाले नम्बरवन बच्चों को, सदा अपने को गायन योग्य समूर्ण और सम्पन बनाने वाले, बाप के समीप बच्चों को, सदा अपने को अमूल हीरे तुल्य अनुभव करने वाले अनुभवी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते । ''

महाराष्ट्र ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा खुशहाल रहते हो? खुशहाल अर्थात्(भरपूर, सम्पन। खुशहाली स्वयं को भी प्रिय औरों को भी प्रिय लगती है। जहाँ खुशहाली नहीं होती, उसे काँटों का जंगल कहते है। तो आप सबकी जीवन खुशहाल बन गई है। और चाल कौन-सी हो गई? उड़ती कल्प वाली फरिश्ता की चाल हो गई । तो हाल भी अच्छा और चाल भी अच्छी । दुनिया वाले मिलते है तो हालचाल पूछते है ना! तो आपका क्या हालचाल है? हाल है 'खुशहाल' और चाल है 'फरिश्तो' की चाल। दोनों ही अच्छे है ना? खुशहाली में कोई काँटे नहीं आयेंगे। पहले काँटों के जंगल में जीवन थी, अभी बदल गई। अभी फूलों की खुशहाली में आ गये। सदा जीवन में दिव्य गुणों के फूलों की फुलवाड़ी लगी हुई है । दिव्य गुणों के गुलदस्ते का चित्र बनाते है ना, वह दिव्य गुणों का गुलदस्ता कौन सा है आप हो ना या दूसरे कोई है? काँटो का कभी गुलदस्ता नहीं बनता, फूलों का गुलदस्ता बनता है। सिर्फ पत्ते ही होंगे तो भी कहेंगे- गुलदस्ता ठीक नहीं है। तो आप स्वयं दिव्य गुणों का गुलदस्ता अर्थात् खुशहाल हो गये । जो भी आपके सम्पर्क में आयेगा उसे दिव्य गुणों के फूलों की खुशबू आती रहेगी और खुशहाली देख करके खुश होंगे। शक्ति का भी अनुभव करेंगे। इसलिए आजकल डॉक्टर्स भी कहते है - बगीचे में जाकर पैदल करो। तो खुशहाली औरों को भी शक्तिशाली बनाती है और खुशी में भी लाती है । इसलिए आप लोग कहते हो कि हम एवर हैप्पी है। चैलेंज भी करते हो कि अगर किसी को एवररेडी बनना हो तो हमारे पास आये। आप सभी को बाप की स्मृति दिलायेंगे। तो एवरहैल्दी, एवरवैल्दी और एवरहैप्पी - यह आपका जन्म-सिद्ध अधिकार है । यह अधिकार आपको तो मिल गया ना? सभी को कहते हो कि जन्म-सिद्ध अधिकार है । चाहे शरीर बीमार भी हो तो भी मन तन्दरुस्त है ना। मन खुश तो जहान खुश और मन बीमार तो शरीर पीला हो जाता है । मन ठीक होगा तो शरीर का रोग भी महसूस नहीं होगा। ऐसे होता है ना! क्योंकि आपके पास खुशी की खुराक बहुत बढ़िया है। दवाई अच्छी होती है तो बीमारी भाग जाती है । आपके पास जो खुशी की खुराक है वह बीमारी को भगा देती है, भुला देती है । तो मन खुश, जहान खुश, जीवन खुश। इसलिए एवरहैल्दी भी हो, वेअल्ति भी हो और हैप्पी भी हो। जब स्वयं हो तब दूसरे को चैलेंज कर सकते हो । नहीं तो चैलेंज नहीं कर सकते। अपने को देखकर औरों के उपर रहम आता है। क्योंकि अपना परिवार है ना! चाहे कैसी भी आत्माए है लेकिन है तो एक ही परिवार के। जिसको भी देखेंगे तो महसूस करेंगे कि यह हमारा ही भाई है, हमारे ही परिवार का है। परिवार में भी कोई नजदीक के होते है, कोई दूर के होते है, लेकिन कहेंगे तो परिवार के ना?

जैसे बाप रहमदिल है । बाप से यही मांगते है कि कृपा करो, रहम करो! तो आप भी कृपा करेंगे, रहम करेंगे ना। क्योंकि बाप समान निमित्त बने हुए हो । ब्राह्मण आत्मा को कभी भी किसी आत्मा के प्रति घृणा नहीं आ सकती। रहम आयेगा, घृणा नहीं आ सकती । क्योंकि जानते है कि चाहे कंस हो, चाहे जरासंध हो, चाहे रावण हो - कोई भी हो लेकिन फिर भी रहमदिल बाप के बच्चे कभी घृणा नहीं करेंगे। परिवर्तन की भावना रखेंगे - कल्याण की भावना रखेंगे । फिर भी अपना परिवार है, परवश है । परवश के ऊपर कभी घृणा नहीं आती । सभी माया के वश है । तो परवश के ऊपर दया आती है, रहम आता है । जहाँ घृणा नहीं आयेगी वहां क्रोध भी नहीं आयेगा। जब घृणा आती है तो जोश आता है, क्रोध आता है, जहाँ रहम होता है वहीं शान्ति का दान देंगे। दाता के बच्चे हो ना! तो शान्ति देंगे ना! अच्छा!!

सभी खुशहाल रहने वाले हो या कभी-कभी खुशी गायब हो जाती है? उगर क्रोध आया तो क्रोध अग्नि है। वह खुशी को खत्म कर देती है। कभी गुस्सा नहीं करना। रहमदिल के कभी क्रोध नहीं आ सकता। पाण्डवों में विशेष क्रोध' और माताओं में 'मोह ' होता है । पैसे भी छिपाकर रखेगी, पुराने-पुराने नोट भी छिपाकर रखेंगे। अभी तो नष्टोमोहा' हो ना! पुराने कपडे की गठरी बाँधकर तो नहीं रख दी है? कितनी भी तिजोरी हो, पेटी हो लेकिन माताओं में गठरी बाँधकर रखने की आदत होती है । और कुछ नहीं तो साड़ी बाँधकर रखेंगे। तो अभी कुछ बांधकर तो नहीं रखा है? पाण्डवो ने थोड़ा-थोड़ा क्रोध, अभिमान छिपाकर रखा है? मन की जेब में आईवेल के लिए छिपाकर तो नहीं रखा है? अंशमात्र भी न रहे। अंश, वंश को पैदा कर देगा, इसलिए फुल खाली करो। अच्छा ।

जोन वाइज़ ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

बाप के स्नेह ने सब कुछ भुलाकर उड़ाते हुए अपने स्वीट होम 'मधुबन' में पहुँचा दिया। क्या समझते हो? ट्रेन में आये हो या उड़ते हुए आये हो? शरीर चाहे ट्रेन या बस में आया लेकिन मन स्नेह में उड़ते हुए यहाँ पहुँच गया। मधुबन और मधुबन का बाबा याद आ गया तो सब भूल गया। भुलाने की मेहनत करनी नहीं पड़ती। बस, बाप और पढ़ाई - यही याद है ना! पढ़ाई भी देखा - राजकुमार और राजकुमारियोँ की भी ऐसी पढ़ाई नहीं है! कितनी रॉयल और ऊँच पढ़ाई है! सारे कल्प में राजा बनने की पढ़ाई कोई नहीं पढता। क्योंकि पढ़ाई से राजा कोई बनता ही नहीं है। इस समय आप ही इस पढ़ाई से राजा बनते हो । राजा भी नहीं, राजाओं का राजा । सारे कल्प में ऐसी पढ़ाई कोई नहीं पढता। राजकुमार बनकर राजकुमार- कालेज में जाते है, राजा बनने की पढ़ाई नहीं पढ़ते। वह तो जानते है कि धन दान से राजा बनते है, पढ़ाई से राजा नहीं बनते। आपकी पढ़ाई राजाई प्राप्त करने की है। अभी स्वराज मिला, फिर विश्व का राज्य मिलेगा। अभी राजा हो ना या प्रजा का राज है? प्रजा यानि कर्मन्द्रियाँ - यह कर्मचारी है । तो कोई कर्मेन्द्रिय अर्थात् प्रजा का राज तो नहीं है ना ' कभी-कभी प्रजा तेज़ तो नहीं हो जाती ' राजा को ढीला कर देती है । सतयुग में प्रजा का प्रजा पर राज्य नहीं होगा, राजा का राज्य होगा । यह तो चक्र के लास्ट मैं प्रजा का प्रजा पर राज्य है। लेकिन आपके पास तो प्रजा का राज्य नहीं है ना ? अच्छी तरह से चेक करना कभी प्रजा - राजा तो नहीं बन जाती?' अधिकार लेना माना राजा बनना। जैसे आजकल करते हे - एक सेकंड में राजा को उतारकर के दूसरा राजा बैठ जाता है । या उसको खत्म कर देते है या राज्य से उतार देते। तो आपकी प्रजा ऐसे तो नहीं करती - राजा को गुलाम बना दे और खुद राजा बन जायें ? शक्तिशाली राजा हो, कमज़ोर राजा नहीं । जिस राजा से प्रजा सदा खुश है, ठीक राज्य चलता है तो उसको उतारेगी कैसे! आप भी स्वराज ठीक रीति से चला रहे हो तो कोई कर्मन्द्रिय धोखा नहीं देगी क्योंकि वह संतुष्ट है। जहाँ असंतुष्टता होती है वहाँ धोखा देती है । तो आपका राज्य कैसे चल रहा है? सर्व कर्मेन्द्रियाँ संतुष्ट है? प्रजा खुश है? कर्मेन्द्रियॉ शीतल, शान्त हो गई है? धोखा देने की चंचलता समाप्त हो गई है? अभी क्या बन गये हो? शीतला देवी। जो स्वयं शीतला होगी तो यथा राजा तथा प्रजा होगी। वह सब कर्मेन्द्रियाँ भी शीतल हो जायेंगी। शीतला देवी में कभी क्रोध नहीं आता है। कई कहते है - क्रोध नहीं है, थोड़ा रोब तो रखना पड़ता है । रोब भी क्रोध का अंश है । तो जहाँ अंश होता है वहीँ वंश पैदा हो जाता है । तो शीतला देवी और शीतला देव हो ना । संगम पर बाप, माताओं को आगे रखते हैं । इसलिए गायन शीतला देवी का है लेकिन पांडव भी शीतला देव है । तो रोब का संस्कार परिवर्तन हो गया वा कभी स्वप्न में भी रोब का टेस्ट करते हो? जैसा संस्कार होता है वैसे कर्म स्वत: ही होते है । तो संस्कार ही शीतल हो गये।

ब्राह्मण का अर्थ ही है शीतल संस्कार वाले । ' आपका यह निजी ओरिजिनल संस्कार है । अभी जोश नहीं आ सकता । बाल-बच्चों पर भी जोश तो नहीं करते? कितना भी रोब दिखाओ लेकिन रोब से आत्माएं दबती वा बदलती नहीं है । उस समय दब जाती है लेकिन सदा दबना नहीं होता। और प्यार ऐसी चीज़ है जो पत्थर को भी पानी कर देता है । समझते हो कि रोब दिखाया तो ठीक हो गया। लेकिन ठीक नहीं होता। तो 'स्वराज अधिकारी आत्माए है ' - यह निश्चय और नशा सदा ही हो। स्वराज में सुख है, पर-राज्य में अधीनना है। तो सदा इस रूहानी नशे में नाचते और गाते रहो। खुशी की निशानी है - नाचना और गाना। नाचना- गाना तो छोटे बच्चों को भी आता है । तो सभी खुशी में नाचते-गाते हो या कभी रोते भी हो? मन का रोना भी रोना है। घर वाले दुःख देते है, इसलिए रोना आता है! वह देते है, आप लेने क्यों हो? अगर कोई चीज़ देता है, और कोई लेता नहीं तो वह किसके पास रहेगी ' उनका काम है देना, आप लो ही नहीं। ६३ जन्म तो रोया अभी दिल पूरी नहीं हुई है' जिस चीज़ से दिल भर जाती है वह कभी नहीं किया जाता। परमात्मा के बच्चे कभी रो नहीं सकते। रोना बंद। टंकी सुखा के जाना। न आँखों का रोना, न मन का रोना। जहाँ खुशी होगी वहां रोना नहीं होगा। खुशी वा प्यार के ऑसू को रोना नहीं कहा जाता। तो योग की धूप में टंकी को सुखा के जाना। विघ्न को विघ्न न समझ खेल समझेंगे तो पास हो जायेंगे। अच्छा।